भारतीय धर्मशास्त्र मात्र धार्मिक नहीं वैज्ञानिक शोध भी है
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आज से लगभग 3500 वर्ष पूर्व ऋग्वेद के दशम मंडल में ऋषि प्रजापति परमेष्ठी द्वारा देव भाववृत्त के लिए रचित 129वा सूक्त जिसे नासदीय के नाम के नाम से जाना जाता है, ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के विषय में एक मील का पत्थर मानी जाने वाली वैज्ञानिक रचना है। निर्विवाद रूप से प्राचीन भारतीय ग्रंथ विशुद्ध वैज्ञानिक रचनाएं थी जिन्हें समय से आगे चल रहे वैज्ञानिक ऋषियों द्वारा मानव कल्याण के निमित्त रचा गया था।
1927 में पश्चिमी वैज्ञानिक लैमेटर द्वारा ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति का बिग बैंग सिद्धांत दिए जाने के पश्चात नासदीय सूक्त वैज्ञानिक जगत में चर्चा का विषय बना क्योंकि आश्चर्यजनक रूप से बिना किसी आधुनिक दूरदर्शी या आधुनिक उपकरणों के एक प्राचीन भारतीय ऋषि ने कूट शब्दों में ब्रह्माण्ड की संरचना का लगभग वही वर्णन किया था जो आज के आधुनिक वैज्ञानिक कर रहे हैं।
इस सूक्त के अनुसार प्रलय की स्थिति में चहुं ओर मात्र अंधकार ही अंधकार था। रात्रि, दिन, अंतरिक्ष, पाताल, भूमि, जीवन, मृत्यु इत्यादि किसी का अस्तित्व नहीं था। सम्पूर्ण अनादि पदार्थ सलिल या द्रव रूप में था, अनादि पदार्थ अर्थात जो सदैव से था और सदैव के लिए रहेगा वर्तमान वैज्ञानिकों ने भी हिग्स बोसोन या गॉड पार्टिकल नाम के ऐसे अनादि कण के अस्तित्व को स्वीकार कर लिया है। उस स्थिति के केंद्र में शून्य रूपी ईश्वर ही विद्यमान था उसी बीज़रूप से निकली अथाह ऊर्जा से इस समस्त ब्रह्माण्ड का निर्माण प्रारम्भ हुआ।
20 वीं शताब्दी के वैज्ञानिकों जैसे लैमेटर एवं हबल ने 13.7 अरब वर्ष पहले की बिग बैंग के घटना से पूर्व के विषय में कहा कि उस स्थिति में समय एवं स्थान का कोई अस्तित्व नहीं था, पूरा पदार्थ एक इकाई या शून्य के रूप में अतिसंघनित द्रव अवस्था में था। उसी शून्य संरचना में हुए महाविस्फोट के कारण उत्पन्न महाऊर्जा से वर्तमान ब्रह्माण्ड का जन्म हुआ।
उपरोक्त कथनों में उपस्थित समानता का भाव तत्कालीन भारतीयों के वैज्ञानिक ज्ञान की पराकाष्ठा की स्थिति की घोषणा करता है तथा यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त कारण उपलब्ध कराता है कि प्राचीन भारतीय ज्ञान अपने समय से बहुत आगे था।